लमते रन्योऽत्र धन्योऽस्ति कः ॥२४॥
तीनों लोकों के स्वामी श्रीहरि स्वयम् कहते हैं कि शान्त श्रात्मानन्द में निश्चल जिसकी बुद्धि निमग्न है ऐसे ज्ञानी के पीछे चलता हूं इसलिये कि उसके चरणों की रज से मैं हमेशा पवित्र होऊँ जिसके चरण कमल सुर असुर और मनुष्यों को नमन करने योग्य है इसी कारण से वह विश्वका गुरु है। यहां उससे अन्य कौन धन्य है? ॥२४॥
(योगि ध्येय पदाम्बुजः) योगीजनों के ध्यान करने के योग्य है चरण कमल जिसके ऐसा जो (त्रिजगतां नाथः हरिः) तीनों लोकों का स्वामी श्री हरि है वह हरि भी जिसके लिये ( स्वं स्वयं शांतं नित्यं अनुव्रजामि रजसा पूयेयं इति अब्रवीत् ) 'मैं स्वयं ब्रह्मरूप और शांत ज्ञानीके पीछे सदा चलता हूं इसलिये कि उसके वरणकमलों की रज से मैं पवित्र होऊ' इस प्रकार कह गये हैं (सुरासुरनरैःश्रानम्य पादांबुजात्) देवता, असुर और मनुष्यों से नमस्कार करने योग्य हैं चरणकमल जिसके ( आत्मानन्दनिमग्न निश्चलमतेः) तथा आत्मानंद में प्रविष्ट निश्चल है बुद्धि जिसकी (तस्माद्विश्वमुरोः अन्यः अत्र कः धन्यः श्रस्ति ) ऐसे जगत् गुरु ब्रह्मवेत्ता से भिन्न इस व्यवहारास्पद् संसार में वा शास्र व्यवहार में कौन सर्वेोत्कृष्ट, श्लाघनीय, सुभाग्य तथा धन्य है ? कोई भी नहीं ॥२४॥
नित्यतृप्त पूज्यतम विद्वान् की लोक उपकार के लिये स्वाभा विक चेष्टा को अब दिखलाते हैं
स्वाराज्य सिद्धि सोऽयंपूर्ण मनोरथोपि सहजात् कौतूहलात्