प्रकरण ३ श्लो० २५ [ २४३ एर्यटत्रुर्वी सर्व हिते रतः प्रतिपदं स्वानंदमा स्वादयन् । साश्चर्यं सकुतूहलं सकरुणं सानं सो वह वीर पुरुष मोह समुद्र के पार होकर पूर्ण मनोरथ हुआ भी सब के हित में रत है और कौतुक से ही पृथ्वी पर विचरता है। पग पग पर स्वरूप के आनन्द का स्वाद लेता हुश्रा, आश्चर्य सहित कौतुकसहित, करुणा, ग्रानन्द और उत्कंठा से बारंबार इस प्रकार गाता है ॥२५॥ ( सोऽयधीर:) ऐसा यह विद्वान् (मोह जलधेः पारं अवाप्य पूर्ण मनोरथः अपि) अज्ञान समुद्र के परपाररूप ब्रह्मको प्राप्त होकर पूर्णमनोरथ हुआ है तथा (सर्व हिते रतः) सर्व के हितमे प्रेम वाला होने से (सहजात्कौतूहलात् उव पर्याटन् ) स्वाभाविक कुतूहलभाव से अर्थात् प्रयोजन के विना ही पृथिवी में विचरता है तथा (प्रतिपदं स्वानन्दं प्रास्वाद्यन्) पग पग पर टात्मानन्द का श्रास्वादन करता हुश्रा, अनुभव करता हुश्रा (साश्चवयम्) यह दुविज्ञेय ब्रह्म मैंने कैसे जान लिया इस प्रकार श्राश्चय सहित होकर (मुहुः गायति ) पुनः पुनः गान करता है । किस कारण ऐसा करता है ? (सकुतूहलम्) उसने बहुत दुइँय तत्व का अनुभव किया है इसका उसे बड़ा आश्चय है, (सकरुणं ) उसके समान और भी अधिकारी जन श्रपने परमार्थ स्वग्रप को अनायास से ही जान जावे इस
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