२४८ ] स्वाराज्य सिद्धि अमदे स्वच्छन्दे निरुपमनिजानन्द जलधौ मयि स्वांते शान्ते जगदिदमशेषं न कलये ॥२९॥ एकरस, प्रकाशरूप, स्वतंत्र, उपमारराहेित और निजानंद स्वप मेरे श्रात्मसमुद्र में मन के शांत होने से इस संपूर्ण जगत् को मैं नहीं जानता कि क्या यह अस्त हुआ है, क्या ध्वस्त हुआ है, क्या यह मसला गया है, क्या पिघल गया है, क्या गिर गया है, क्या इसको कोई निगल गया है अथवा क्या पके हुए अन्नके समान जर्णि होगया है ॥२९॥ ( अमंदे) केवल प्रकाश चेतन रूप तथा ( स्वच्छन्दे ) अपने से भिन्न वस्तु मात्र के अभाव होने से स्वतंत्र तथा (निरुपम निजानंद जलधौ) तुलना रहित आत्मानंद के समुद्र रूप (मयि ) मेरे स्वरूप में (स्वान्ते ) मन के. (शांते ) शांत होनेपर मैं (इदं अशेषं जगत्) इस संपूर्ण जगत् को (न कलये ) नहीं जानता । अर्थात यह जगत् क्या था किसमें था कॅसे था, अब कहां चला गया, इत्यादि कलना मुझको नहीं होती, क्योंकि यदि यह जगत् श्रात्मा से कोई भिन्न वस्तु होता तो इस जगत् की इस प्रकार कलना भी करता कि क्या इस मंपूर्ण जगत् का (किं अस्तम् ) सूर्य आदि के समान अस्त ोगया है ? (किं ध्वस्तम्) अथवा यह जगत् क्या घट आदिकों के सट्श ध्वस्त हुआ है अर्थात् नाश हुआ है ? (किंमु, विलु लितम् ) श्रथवा यद्द जगत् क्या पुष्प आदिकों के समान टूट फूट गया है ? (किन्नु गलितम्) अथवा यह सर्व जगत् क्या । अग्नि के संयोग से घृत की तरह विलीन होगया है अर्थान
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