प्रकरण.३ श्लो० 3८० [ २४९ पिघल गया है? (विशीर्णम्) अथवा यह जगत् क्या चिरकाल से विकसित होने से शिथिल द्लमूल पवन पीड़ित शत पत्र की न्याइँ विशीर्ण होगया है ? (वा गीर्णम्) अथवा यह जगत् क्या सर्प के मुख में मेंड़क के शरीर के समान चला गया है अर्थात् किसी से निगला गया है (ननु सपदि जीर्णम्) अथवा यह संपूर्ण जगत् क्या भुक्त अन्न के सदृश शीघ्र ही जीर्ण हो गया है अर्थात् नि:सार होगया है ? भाव यह है कि इस जगत् की सत्ता आत्मा से भिन्न किसी प्रकार से भी दिखलाई. नहीं देती है, इसलिये में इस जगत् की वा जगत् के नाश की किसी प्रकार से भी कलना नहीं कर सकता ॥२९॥ अनिर्वचनीय जगत् की उत्पत्ति आदिक भी अनिर्वचनीय ही है इस भाव से कहता है श्राया छन्द ! कथमिदमभवत्कथं नु तिष्ठत्यथ कथमेति लयं प्रतीचि विश्वम् । विमलदृशि निजे निरस्त संगे पटुपरिमृश्य मृषेति निवृत्तोस्मि ॥३०॥ सग स रहित शुद्ध चैतन्य प्रत्यक् ब्रह्म म यह विश्व कैसे हुआ ? कैसे टिका हुआ है? कैसे लय होता है ? (अर्थात् नहीं होता। ) इस प्रकार यह ठीक २ मिथ्या ही है ऐसे निश्चय से मैं सुखी हुआ हूं ॥३०॥ ( विमलदृशि ) शुद्ध चेतन, (निरस्तसंगे) असंग अर्थान् अपने से वस्तुमात्र के अभाव होने से ही स्व इतर वस्तु के संबंध से रहित निर्विकार, (निजे प्रतीचि ) अकृत्रिम रूप प्रत्यक्
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