२५० ] स्वाराज्य सिद्धि ब्रह्म में (इदं विश्वम्) यह जगत् (कथं अभवत् ) कैसे हुआ ? अर्थात् स्वसत्ता शून्य होने से किसी प्रकार से भी नहीं हुआ है। (कथं नु तिष्ठति ) और कैसे स्थित होता है ? अर्थात् उक्त हेतु किसी प्रकार से भी स्थिति वाला नहीं है। (अथ कथं लयं एति) और अनंतर कैसे लय को प्राप्त होता ? अर्थात् उक्त हेतु से ही किसी प्रकार से भी लय नहीं होता है। (पटु परि मृश्य) इस प्रकार जैसे है तैसे ही निपुणतर विचार करके (मृषा) यह जगत् मिथ्या ही है (इति) इस प्रकार निश्चय करके मैं (निवृतोऽस्मि ) सुखी हुआ हूँ । भाव यह है कि जगत् के उत्पत्ति स्थिति और लयये तीनों ही नहीं बन सकते, इसलियेस्वप्न के मोदक के संबंधी विचार के सदृश जगत् के उत्पत्ति स्थिति और लय का विचार भी व्यर्थ ही है।॥३०॥ श्रब अन्य प्रकार से जगत की उत्पत्ति की असंभवता को विद्वान् कहता है शिखरिणी छन्द । निराधाराकारं निरवयवसंस्थानमचलं निरीहं निर्द्ध निरुपम निजानंदविभवम् । विनोपायं स्वाय करण समुदाय ' च परम कथ तादमाय ' त्रिभुवननिकाय' रचयति ॥३१॥ श्राधाररहित, श्राकाररहित, अवयवरहित, अचल, इच्छाराहित, अखंड, आनंदरुप ऐश्वर्यवाला तथा माया से रहित परब्रह्म है । वह बाहरके साधनों के विना तथा आंतर
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