पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२५९

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प्रकरणं ३ श्लो० ३२ '[ २५१ करण विना तीनों लोकों को कैसे रचता है ॥३१॥ ( निराधाराकारम्) अधार से तथा देह रूप प्राकार से रहित, अतएव (निरवयवसंस्थानम्) अवयवों की रचना से रहित अर्थात् हस्त पाद् आदिकों से रहित, (अचलं ) अतएव अचल अर्थात् गति आदिकों से रहित, (निरीहम्) आप्तकाम होने से निस्पृह (निर्द्धद्वम्) रागद्वेश आदि द्वंद्वसे रहित,(निरुप मनिजानन्द विभवम्) अतुल आत्मानन्दरूप ऐश्वर्यवाला तथा ( निर्मायम् ) असंग होने माया के संबंध से रहेित, इस प्रकार के स्वरूप वाला जो (परमम् ) परब्रह्म है वह परब्रह्म ( बाह्योपा यंविना ) बाह्य साधनो विना (स्वीयं करणसमुदायंच विना ) और अपने अन्तरंग नेत्र आदिक करणसमुदाय के विना (त्रिभुवन निकायम्) तीन लोकों को ( कथं रवयति ) केसे रचता है ? अर्थात् उक्त लक्षण वाले ब्रह्मसे जगत् की रचना किसी प्रकार से भी नहीं है।॥३१॥ इस अनिर्वचनीय जगत् की पालना भी अनिर्वचनीय ही है इस भाव से कहता है न भृत्या नामात्या न खलु विषया नेवचव विना न चाशूयाः कोशा नच पुर निवेशा न सुहृदः । तथाप्यात्मेकाकी निजबल वराकीमरि चमं विजि त्येतद्विश्वं भुवनमवतीत्यदुतमिदम् ॥३२॥ आत्मा के नौकर नहीं है, मंत्री नहीं है, इसके देश वा अश्ध आदि सेना नहीं है, धनपूर्ण कोश नहीं है, न घर