पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२६०

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२५२ ] _ ______ __ ___________ _ _ _____________ ______________________ ___ ___ ________ _ __ ___ __ _ __ ___ __ _ __ _ _ _ ___ __________ तथा गांव है न कोई उसका सन्मित्र है, आत्मा निज बल से ही शधु को जीतकर संपूर्ण विश्व की पालना करता है यह बड़ा ही आश्चर्य है ॥३२॥ (भृत्याः न ) उसके पालन के योग्य देह आदिक भृत्य अथवा नौकर चाकर नहीं हैं । (नामात्या:) और बुद्धि आदिक मंत्री भी नहीं हैं (खलु न विषया:) और निश्चय ही शब्द स्पर्श आदि विषय रूप प्रदेश भी नहीं हैं। (नैव च विना) और इन्द्रियू रूप अश्व (अशून्याः कोशः न च) सत्य भा नहा ह, वा पूर्ण अन्नमय प्राणमय आदिक कोश रूप धन के गृह भी नहीं हैं (नच पुरनिवेशः), शरीरत्रय रूप ग्राम निवेश भी नहीं हैं अथात् स्थूल सूक्ष्म कारण रूप तीन शरीरों में अध्यास रूप ग्राम रचना विशेष भी नहीं हैं (न सुहृदः) और शुभ व्यापार रूप मित्र भी नहीं हैं। अतएव (एकाकी) सहाय शून्य अथवा श्रद्वय रूप (श्रात्मा) प्रत्यक् रूप ब्रह्म है । तथापि (निज बल वराकीं अरिचमूम्) स्वरूप बल करके अथवा बाहुबल करके तुच्छ की हुई वा तिरस्कार की हुई काम आदिक सेना को अथवा शत्रु की सेना को (विजित्य) विशेषतया जीत करके वह प्रत्यक् साक्षी रूप ब्रह्म (एतत् श्रवति ) इस निखिल जगत् का पालन करता है, (श्रदूतं इदम्)यह बड़ा श्राश्चर्य है ! अर्थ यह हैं कि आत्मा से भिन्न यह जगत् स्वप्नवत् है इसलिये इसका पालन भी स्वप्नवत् ही है ॥३२॥ अनिर्वचनीय जगत् का संहार भी अनिर्वचनीय ही है इस तात्पर्य से कहता है असंगोदासीनः स्वरस परमानन्दसुहितो जिघत्सा