प्रकरण ३ श्लो० १८ हूँ।॥३४॥ निगुण स्वरूप ज्ञान बलसे तीन गुणरूप अज्ञान का द्वेषी हूं अर्थात् अज्ञान के साथ द्वष होने से मैंने श्रज्ञानका अत्यताभाव रूप बाध करडाला है । ( स्वार्थ प्रियः ) तथा में स्वार्थ प्रिय हूं । अर्थ यह है, गुण द्वेषी होने में कारण यह है कि मैं स्वार्थी हूं । अर्थात् आत्मा रूप अर्थ में मेरा प्रेम है । (इति) इस प्रकार से कहा जो (जगत् वंचन परं चित्रं मे चरित्रम्) जगत् के सर्वस्व हरणपरायण अश्चय रूप यह मेरा चरित्र है इस मेरे विचित्र चरित्र को लोकमें (कचित् अपि कश्चित् न कलयति ) कहीं पर भी कोइँ भी नहीं जानता । भाव यह है कि जैसे लोकमें वंचकजन मूर्ख पुरुष द्वारा स्थापन किये हुए धन को हरलेता है और सर्वत्र अविश्वास वाला होता है और नरकसे निर्भय होता है और गुण द्वषी और वचवक होता है और अपने प्रयोजन मात्र में प्रेम वाला होता है सो ऐसावंचक वा चोर पुरुष लोकमें दुर्विज्ञेयचरित्र होता है। तैसे ही मैं भी उक्त प्रकार से दुर्विज्ञेय चरित्र वाला [ २५५ सर्व लौकिक सुख सामग्री के अभाव होने पर भी ब्रह्मवेत्ता परम सुखी होता है, इस प्रकार ज्ञानी के आश्चर्यरूप दारिद्र को अब कहता है न तातो नो माता सुहृदपि न मे धामनि धनं न चात्रं पानं वा न सततगतिनम्बरमपि । चरन्तं कृत्स्नं मामह नहि लोकोऽपि विमृ शत्यहो मे दौर्गत्यं तदपि सुख साम्राज्यमतु
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