२५६ ] स्वाराज्य सिद्धि मेरे पिता नहीं है, माता नहीं है, सन्मित्र नहीं है, शरीर नहीं है, धन नहीं है, अन्न नहीं है, अथवा पान नहीं है । न मुझे प्राणही है, और न वस्त्रही है । फिर भी, व्याप्त होकर विचरते हुए मुझको लोग नहीं देखते यह बड़ा श्राश्चर्य है और मेरी ऐसी दुर्गति है तो भी उपमा शून्य सुख की प्राविकता मुझमें है यह और बड़ा श्राश्चर्य है ॥३५॥ ( न म तातः ) मरा काइ उत्पन्न करन वाला पता नहा है, (न माता) न कोई मेरी माता है (सुहृत् अपि न) और न मेरे कोई मित्र है । (धामनि मे धनं न) घरमें धन भी नहीं है (नच अन्न पानं वा ) और न मेरे अन्न जल ही है (सततगति र्नचव) न मेरा प्राण ही है (नापि अंबरम् ) और न मेरे शरीर को वस्त्र ही है (चरंतं कृत्स्नम्) सर्वत्र विचरते हुए (माम्) मैं प्रत्यग् रूप ब्रह्मात्मा को ( अहह्) बड़ा खेद् है कि (लोको पि ) मूढ भी जन (न विमृशति ) नहीं देखता वा विचारता है। यद्यपि इस प्रकार (मे दौर्गत्यम्) मेरे को दुर्गमत्व रूप दरिद्रता है (तदपि ) तथापि (सुख साम्राज्यं अतुलम्) उपमाशून्य सुख की अधिकता मुझे प्राप्त है । (अहो ) यह बड़ा ही आश्चर्य है। अर्थ यह है कि जैसे लोक में भी कोई पुरुष माता पिता से तथा सुहृत् से रहित हो, धनहीन हो, अन्न हीन हो, दुग्धादिकों से भी हीन हो, सदा स्व पालक सहायक से हीन हो, वस्रों से भी हीन हो तथा भोजन आदिकों के लिये सर्वत्र विचरता हुआ हो फिर भी किसी द्वारा वह पुरुष अनुकंपित नहीं होता, इस प्रकार की दारिद्रता को प्राप्त होकर यदि फिर भी वह पुरुष
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