पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२७०

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२६२ ] मेरा प्रत्यगात्मा रूप सिंह कालातीत पद में विचरता है ॥४०॥ जाप्रत स्वप्त सुषुप्ति रूप वनमें (गाह मानः अपि) विचरता हुश्रा भी (श्रसंग:) हमारा श्रात्मारूप सिंह प्रसंग ही है। अर्थात् तीनों श्रवस्था रूप वनके धर्म को नहीं सेवन करता । ( सत्वोत्कर्षात्) और पारमार्थिक सत्ता रूप बलके उत्कर्ष से (करण हरिणैः प्राग्भिः ) विमुख होकर पलायमान इन्द्रियरूपी हरिणों से (नईक्षणीय ) हमारा श्रात्मारूप सिंह दर्शनीय नहीं है । (लीला वृत्ति प्रशमित महामोह मत्तेभजालः) श्रवण श्रादि रूप लीला करके उत्पन्न हुई जो अखंडाकार वृत्ति है उस वृत्ति से नाश.किया है मूलाज्ञानरूप मस्त हाथिओं का समूह जिस श्रात्मारूप सिंहने (न:) वह हम लोगों का (स्वात्म कठीरवः) अपना प्रत्यगात्मारूप सिंह ( कालातीते पदे विलसति ) त्रिकाला बाध्य निज स्वरूप रूप एकांत पद् में प्रकाशमान है ।॥४०॥ वसंत तिलका छन्द् । इत्यादिभिभुवन जाड्यहरेः सुगोभिः सत्योज्ज्व लैः श्रुतिसुखेरमृत प्रबोधेः । आनन्दयन् प्रतिपदं प्रणतान् सभाग्यानाशाः पवित्रयति भानुरिव प्रबुद्धः ॥४१॥ लोगों के अज्ञान को हरण करने वाला, सत्य से प्रकाशवान, श्रवण को सुखदाता, परमपद के उपदश से अज्ञान अंधकार का नाश करने वाला, प्रणाम करने वाले