पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२७४

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२६६ ] स्वाराज्य सिद्धि निजाम रूप चन्द्र सदैव स्फुरित रहता है ॥४४॥ (न उदेति नास्तं उपयाति) जो उत्पत्ति को प्राप्त नहीं होता तथा नाश को प्राप्त नहीं होता (न वृद्धि मेति नापि क्षयम्) भजते ) तथा न वृद्धि को प्राप्त होता है, न ह्रास को ही प्राप्त होता है। (निज तेजसा इद्धः) और जो अपने प्रकाश से ही प्रकाश मान है (सहजेन सुखामृतन्न सदव पूरणः ) तथा स्वाभाविक आनन्द के अमृत से सदा ही परिपूर्ण है, (निलव्छन: ) तथा द्वैतरूप कालिमा के लाञ्छन से शून्य है (स्फुरति कोपि निजा त्मचंद्र:) इस प्रकार का कोई श्रनिर्देश्य स्वात्मरूप चंद्रमा विराजमान है । इतने कहने से विदेहमुक्त की पुनरावृत्ति का निरास हुआ । श्रीभगवान् ने अपने श्रीमुख से अजुन के प्रति श्रीगीता में कहा है कि, हे अर्जुन, ब्रह्मलोक पर्यन्त सर्वलोक पुनरावृत्ति वाले हैं परन्तु मेरे स्वरूप को प्राप्त होने वाले ब्रह्मवेत्ताका फिर कभी भी जन्य नहीं होता । जिसको प्राप्त होकर ज्ञानी महात्मा लोग पुनः वापिस नहीं लौटते वही मेरा परम स्वरूप है। ऐसे ही वेदमें भी कहा है न स पुनरावर्तते' ॥४४॥ अब ग्रंथकी समाप्ति में अनेक रूपकों से सर्व वेदान्त विषय की उत्कर्षता निरूपण करते हैं शार्दूल विक्रीडित छंद । विश्वानन्दतुषारसिंधुरखिल ज्ञान स्फुलिंगानलः प्रच्छन्नासिलता च कोश कुहरे द्वेत भ्रम छेदिः नी । मोह ध्वान्त विभाकरः परिलसन् वेदांत सीममंतिनी मोलिस्थान मणिः:सदा विजयते संवेिन्मयः पूरुषः ॥४५॥