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प्रकरणं 3 श्लो० 45

जो श्रानंदरूप हिमकणेों का समुद्र है, जो सब ज्ञान रूप चिनगारियों का अग्नि है, जो हृदयकोश रूप छिद्र में द्वैत भ्रम को काटने वाली तरवार है, जो मोह के नाश करने वाला सूर्य है, जो उपनिषत् वधू के शिर स्थान की मणि होकर प्रकाशता है वह चैतन्यमय पुरुष प्रत्यगात्मा की सदं विजय है ।॥४५॥

(विश्वानन्दतुषार सिंधुः) जो चेतन स्वरूप प्रत्यगात्मा ब्रह्म पुरुष सकल प्रानन्द रूप हिमकणों का समुद्र है, (अखिल ज्ञान स्फुलिंगानलः) जो उक्त लक्षण पुरुष सकल ज्ञान रूप चिनगारियों का मूलभूत अग्नि है, (कोश कुहरे द्वैतभ्रमविच्छे दिनी प्रच्छना असिलता च), जो उक्त लक्षण पुरुष पंचकोश रूप खोह में अर्थात् हृदय रूप म्यान में गूढ़ द्वैतरूप भ्रम की काटने वाली तलवार है, (मोह ध्वांत विभाकर:) जो उक्त लक्षण पुरुष श्रज्ञान या अविवेक रूप अंधकार के लिये सूर्य है (वेदांत सीमंतिनी मौलिस्थानमणिः परिलसन्) तथा जो उक्त लचूण पुरुष उपनिषत् रूप वधू के शिरःस्थानीय मणि रूप होकर सर्वओर से प्रकाशमान है । (संविन्मयूः पुरुषः सदा विजयते) ऐसा वह चेतन रूप ब्रह्म प्रत्यगात्मा सर्वदा ही सर्व से उत्कर्ष रूप से वर्तमान है ।॥४५॥

अब ग्रन्थकर्ता श्रीमत् गंगाधरेंद्र सरस्वती ग्रंथ का नाम सूचन करते हुए अधिकारीश्रों के प्रति आशीर्वाद प्रदान करते हैं

वसंत तिलका छन्द ।

शन्त्याद्विद्विव्य मणिभूषणमंडितानां वेदान्त