पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/४८

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
40]
स्वाराज्य सिद्धिः

परमाणु, इसलिये पारिमांडल्यत: का अर्थ है, परमाणु के परिमाण से (महत्किमिति न स्यात्) द्वथणुक व्यणुक की तरह महान् परिमाण वाला क्यों नहीं होता ? भाव यह है इस परमाणु कारण वादियों के मत में कार्य कारण का भेद माना है और कारण के गुण कार्य के गुणों को प्रारंभ करते हैं इसलिये कार्य में द्विगुणता परिमाण की प्राप्ति होनी चाहिये अन्यथा (तेभ्य:) उन द्वयणुकों से उत्पन्न हुआ त्र्यणुक पदार्थ (मान्) महत्त्व परिमाण वाला ( कथं स्यात् ) किस प्रकार होवेगा ? और तुम्हारे मत में त्र्यणुक में महत्व परिमाण माना है, इसलिये द्वयणुक में भी उक्त न्याय से महत्त्व परिमाण होना चाहिये और (असौ एव ) यह त्र्यणुक पदार्थ भी (ते नित्यः किं इति न स्यात्) तेरे मत में नित्य क्यों न होजावे ? भाव यह है कि परमाणु की कल्पना तुम ही किस लिये करते हो ? यदि ऐसे कहो कि दृश्य पदार्थ सावयव और अनित्य होता है यह नियम है तो मूर्त द्रव्य की भी सावयवता और अनित्यता का भी नियम है। (इति) इसलिये (ब्रहि) हे वादिन् कहो कि (अणुर्वा ) परमाणु भी (नित्योनिरवयवश्च कथं स्यात्) नित्य . और निरव. यव कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥२१॥

अब श्रागे तीन श्लोकों से क्षणिक बाह्यार्थवादी बौद्धमत का निरसन करते हैं

बाह्य भोग्यं प्रजल्पन् क्षणिक मणु चयं भोक्तृ

संघात मंतः स्कंधानां पंचकं चेदृशमिति सुगत:

पृच्छयतां वेद बाह्यः। किं ते मानांतरेण प्रमित