( ग ) इस स्वाराज्यसिद्धि ग्रंथ के तीन प्रकरण हैं। प्रथम प्रकरणा का नाम अध्यारोप प्रकरण है। इस प्रकरण में सांख्यादिक मतों का श्रुति प्रमाण से तथा युक्ति से किया गया है रखंडन श्रऔर वेदांत सिद्धांताभिमत अर्थ का स्थापन किया गया है। दूसरे प्रकरण का नाम अपवाद् प्ररकण है। इस प्रकरण में भेद का खंडन श्रुति प्रमाण से तथा युक्ति से किया गया है और अद्वैत सिद्धांत का स्थापन किया गया है। तीसरे प्रकरण का नाम आगम करण प्रकरण है। इस प्रकरण में शब्द प्रमाण ही आत्मैकत्व साक्षात्कार का कारण है यह स्थापन किया गया है। यह अद्वितीय ग्रंथ वेदांत सिद्धांत का समर्पक है और उपनिषदों का तथा ब्रह्मसूत्र भाष्य का संग्रहरूप है । परन्तु सूत्र रूप है मैंने भी संग्रह रूप ही व्याख्यान लिखा है संविस्तृत नहीं लिखा है, क्योंकि भाषामात्रज्ञ मुमुलु जनों को मूलमांत्र के अर्थ अहण में विस्तार विरोधी पड़ जाता है। परंतु अपेक्षितार्थ सर्व लिखा है, अतः अधूरा भी नहीं है । गुरु उक्त वेद सिद्धांत का अधिक कहना भी अस्मदादिकों की शक्ति से बाहर है, क्योंकि सूर्ण व्याप्त आकाश में पटबीजना क्या प्रकाश कर सकता है ? और न यह टीका ख्याति लाभ वा पूजाके लिये ही लिखी गई है, किंतु केवल स्वमित्रवर के वाक्य के सत्कारार्थ तथा ब्रह्मवेत्ता रूप कसौटियों में स्वबोध के परिशोधन के अर्थ ही यह टीका लिखी गई है। वेदांत शास्र का अर्थ बड़ा गंभीर है इसलिये इस सिद्धांत अर्थ का पूर्ण रीति से भाषान्तर से कहना कठिन है। तथा
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