तो कारण की विफलता में स्वप्रतिज्ञा का विरोध और
अभाव में तीन प्रकार भी कैसे हो सकते हैं ? इससे कुबुद्धि
बौद्ध का कथन ठीक नहीं है ॥२४॥
(द्विविध समुदयः) उक्त भोक्ता भोग्य समुदाय (अविद्यादि प्रवृत्तेः ) कार्य कारण भाव से अविद्या श्रादिकों की निरंतर प्रवृत्ति रूप हेतु से (न) नहीं है, (यतः) क्योंकि (ते) सो अविद्यादिक (सन्ना: ) एक एक में नष्ट हुए एक एक की उत्पत्ति के हेतु हुए भी कथंचित् अर्थात् किसी प्रकार से क्षणिक पदार्थोसे उत्पन्न हुए अनेक संघी भाव द्वारा हेतुता होगी, क्योंकि एक एक का ये की उत्पत्ति चक्षण में ही (नुत्वात्) नष्ट होजाने से वास्तव में तो उत्पति में भी कारणता नहीं है क्योंकि (नश्यन् ) स्वयं ही नाश होता हुआ पदार्थ (उत्पादने) कार्य उत्पन्न करने में ( न प्रभवति) स्वविनाश क्षण में ही उत्पन्न कार्य की उत्पत्ति करने को समर्थ नहीं होता, क्योंकि कार्य के साथ उसके संबंध का अभाव है । यदि विना ही स्वसंबंध के कार्य की उत्पत्ति इष्ट होगी तो (अरे किं कार्य' हेत्वसंबंधि) श्ररे वादिन्, क्या कार्य हेतु के संबंध से बिना होता है ? अर्थात् कारण के संबंध से विना तो किंचित् भी कार्य नहीं होता । (चेत्) यदि (तत्) वह कार्य (निर्हेतुकम् ) कारण के संबंध के विना ही ( स्यात् ) उत्पन्न होता है तो (करण विफलता स्व प्रतिज्ञा विरोधौ ) विना ही कारण के कार्य की उत्पत्ति होजाने पर उस उस कार्य के प्रति उस उस कारण का स्वीकार करना लोक में निष्फल हो। जायगा और (चतुर्विधान हेतून् प्रतीत्य चित्त चैत्ता उत्पद्यन्ते:) इस सूत्रस्थ स्व प्रतिज्ञा का विरोध भी प्राप्त होगा । (च) और पुनः तेरे मत में (अभावे त्रैविध्यं अपिकथम्) अभाव में तीन