तहां वस्तु की अस्तित्व वांच्छा होने पर, स्यादस्ति, यह श्राद्य
भंग प्रवृत्त होता है और नास्तित्व वांच्छा के होने पर स्यान्नास्ति
यह द्वितीय भंग प्रवृत्त होता है औह क्रम से अस्तित्व और
नास्तित्व इन दोनों की वांच्छा होने पर, स्यादस्तिचनास्तिच,
यह तीसरा भंग प्रवृत्त होता है। और एक काल में ही अस्तित्व
और नास्तित्व इन दोनों प्रकारों की वांच्छा होने पर और
अस्ति नास्ति इन दोनों शब्दों को एक काल में कहने में असमर्थ
होने से स्याद्वक्तव्य , यह चौथा भंग प्रवृत्त होता है। और
पहले तथा चौथे भंग (प्रकार) की वांच्छा होने पर, स्यादस्ति
चावक्तव्यश्च, यह पंचम भग प्रवृत्त होता है। और दूसरे तथा
चौथे भंग की इच्छा होने पर स्यान्नास्तिचावक्तव्यश्च, यह छठा
भंग प्रवृत्त होता है। और तीसरे तथा चौथे भंग की इच्छा होने
पर, स्यादस्तिनास्तिचवावक्तव्यश्च, यह सप्तम भंग प्रवृत्त होता हैं ।
इस प्रकार भगों का यह विभाग है। यह सप्त भंगी न्याय एक
श्रनेक, नित्य. अनित्य श्रादि सर्व पदार्थो में कल्पना कर लेना
चाहिये । इससे एक में अनेक रूप प्राप्ति होने से एक वस्तु में
प्राप्ति तथा त्याग आदि व्यवहार बन सकता है और एक रूप
होने से तो सर्व वस्तु सर्वत्र सर्वदा है ही इसलिये प्राप्ति तथा
त्याग श्रादि व्यवहार का लोप ही प्राप्त होता है। इस कारण
सर्व पदार्थ अनेकांत हैं। इस प्रकार के उत्क्त जैन सिद्धांत से
श्रुति स्मृति अनुभव सिद्ध एक रूप ब्रह्मवाद का बाध प्राप्त होना
है इस कारण से इस नास्तिक जैन का मत यहां रखंडन किया
जाता है कि एक घटादि पदार्थ सात प्रकार का नहीं हो सकता ।
जो झै सो सर्वत्र सर्वदा है ही, जैसे ब्रह्मात्मा, श्रौर . जो नहीं हैं
सो है ही नहीं, जैसे शशविषाणादि । घटादि प्रपंच तो उभयविल
चक्षण है इसलिये एकान्तवाद ही ठीक है, अनेकान्तवाद नहीं।
यहां पर पृछना चाहिये कि जिस श्राकार से जो वस्तु हैं वह
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प्रकरण १ श्लो० २७