पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/६९

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प्रकरण १ श्लो० ३० [ ६१ फिर दोषरहित वेदप्रमाण बलिष्ट क्यों नहीं ? इन्द्रिय के विना प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं होता इसलिये तु जो केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है वह तुझे सुगम नहीं है। केवल प्रत्यक्ष से अन्य का भाव जानने में समर्थ नहीं होगा, इसीसे तेरा मिथ्या बकवाद ही हें ॥३०॥ (यदि) यदि आत्मा आदिकों के निश्चय करने में तुम्हारे मत में (एकं प्रत्यक्षमानम्) एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है तो (ते) तुम्हारा (भाषितम्) कहा हुआ वचन (कथं प्रमाणम्) किस प्रमाण से प्रमाण माना जायगा (कथय ) यह तुम कहो । भाव यह है कि यदि प्रत्यक्ष ही प्रमाण है तो तुम्हारे मत में तुम्हारे अनेक प्रकार के शरीरों के भरण पोपणादिक का शास्त्र वाक्यां से किसी को बोध नहीं होगा, क्योंकि तुम्हारा शास्र रूप वाक्य तो प्रत्यक्ष से भिन्न है । इसलिये तुम्हारी स्वशास्त्र रूप वाक्य प्रमाण रचना में प्रवृत्ति भी उन्मत्त प्रवृत्ति है । इतने कहने अनुमान प्रमाण भी इस नास्तिक प्रत्यक्षमात्र मानी चार्वाक को शब्द प्रमाणं की तरह , बलात्कार' से मानना पड़ेगा । वयांविः अन्यथा इसकी भोजन आदिकों में प्रवृत्ति के प्रभाव से मरण प्राप्त होगा । कारण यह है किं अभुक्त भोजन में तृप्ति का प्रत्यक्ष नहीं है, किंतु उससे तृप्ति छनुमेर ही है, (सदोपम्) भ्रम, प्रमाद, दोष सहित (तदपि ) तुम्हारा कथन रूप शास्त्र वाक्य ( याद ) यदि (संभाव्यार्थम् ).निश्चितार्थ वाला है अर्थात् प्रमाण है नो (विदोषः) अपौरुषेय होने से अर्थात् पुरूप द्वारा नहीं रचा होने से उक्त भ्रम प्रमादादि दोप रहित (वेदः किं बली न ) रमव प्रमाणों में यह वेद् रूप प्रमाण क्या बलिष्ट प्राग नहीं हैं ? श्रवश्यं है। अब अनुमान प्रमाण भी तुमको अवश्य मानना