अंकरण १ श्लो० ३८ होते हैं (तथा श्रात्मा) वैसे ही आत्मा भी कौन है अर्थात् श्रात्मा भी अंशों से भिन्न है अथवा अभिन्न है, इत्यादि विकल्प परीक्षा से श्रात्मा का निरूपण करना भी कठिन है। (च ) किंवा (चेत तस्य जड़ता किमिति ) उस चेतन को जड़ रूपता भी किस लिये स्वीकार की गई है (केन वा ) श्रार किस कारण स वह जड़ता उत्पन्न होती है ? असंग में कारण का संबंध ही अवाच्य है । स्रदि कहो कि कतृता आदिकों की उत्पत्ति के अर्थ जड़ता का अअंगीकार किया गया है तो, हे वादी (तस्य कर्तृत्वं कीदृक्) उस श्रात्मा की क्रतूता किस प्रकार की है ? वह कतृता वास्तव तो है नहीं, क्योंकि श्रुति निष्क्रियत्व का प्रतिपादन करती है । और ‘चनुषा पश्यामि’ इस प्रतीति से भी उस आत्मा की कर्तृता की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा प्रसंग होने से कारण समूह को धारण ही नहीं कर सकता । (सः) निष्क्रिय रूप से जो श्रुति में प्रसिद्ध है ऐसा (एषः) यह आत्मा (करण समुद् यम्) करण समुदाय को (वा कथं धत्ते ) किस प्रकार धारण करता है ? प्रसंग होने से किसी प्रकार से भी धारण नहीं कर सकता । इसलिये (देवप्रिय पशुभि: ) देवताओं के पूजक होने से देवताओं के प्यारे और अविवेक होने से पशुओं के समान (कर्मठे:)कर्मका श्राडंबर रचने वाले कर्म मीमांसकोंसे (इदंजीवस्य तत्त्वम्) यह जीव का वास्तव स्वरूप (दुर्निरूपम्) निरूपण करने को कठिन है।३।। श्रबू तीन श्लोकों से कणाद छऔर गौतम के मत का निरसन करते हैं जीवानां वैभवं चेत्तनु कृति करणादृष्ट साधार णस्त्वान् न स्याद्भोग व्यवस्था व्यतिकरमयते
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