वा तद्धर्मो नच धिषणा यतो जडा स्यात् ।॥४०॥
निरवयव श्रात्मा में निरवयव मन का संयोग संभव
नहीं । द्रव्य को निरवयवता और नित्यता भी नहीं
हो सकती । चेतनरूप ज्ञान द्रव्य का धर्म नहीं है क्योंकि
वह भी जड़ ही होगा ॥४०॥
(किंच) तथा (अनवयवे) निरवयव (प्रात्मनि ) श्रात्मा
में (निरवयवस्य मानसस्य संप्रयोगः न संभाव्यः) निरवयव
मन के संयोग की संभावना करना योग्य नहीं है। श्रर्थ. यह है
कि निरवयत्र श्रात्मा में ज्ञानादिक गुणों की उत्पत्ति के लिये
निरवयव मन का संयोग संबंध, जो तुम तार्किकों ने माना है,
उसका खंडन अणुकारणवाद के खंडन में किया गया है और
निरवयव श्रात्माञ्श्रों को व्यापक मानकर फिर उसमें ज्ञानादिक
गुणों की उत्पत्ति के लिये मन का संयोग मानने से तुम्हारे
मत में शरीर, स्री, धन, क्षेत्र, सुख, दु:ख, ज्ञान आदि का संकर
हो जाने से और अदृष्टों का भी संकर हो जाने से तुम्हारा
मत व्यवस्थाशून्य होता है और संयोग व्याप्यवृत्ति क्षेोने से
आत्मा और मन दोनों को सावयव भी मानना पड़ेगा और
सावग्रवता मानने पर दोनों की अनित्यता भी माननी पड़ेगी ।
फिर कृतनाश और श्रकृताभ्यागम दोष भी अपरिहार्य होंगे ।
(द्रव्यं न निरवयवं नवा शाश्वतम्) वैसे ही द्रव्य की निरवय
वता भी नहीं माननी चाहिये श्रौर नित्यता भी नहीं मानती
बाहिये, क्योंकि जो द्रव्य है वह उत्पति वाला ही होता है
श्रौर जो उत्पत्ति घाला होता है वह सावयव तथा अनित्य
होता है, यह सर्व घटादिक द्रव्य में प्रत्यक्ष है। श्राकाशादिक
पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/८८
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
२६०]
स्वाराज्य सिद्धिः