94 अष्टावक्रगीता।
पुरुषके वशीभूत होकर कार्य करता है वास्तवमें उसका चित्त कार्यके संकल्पविकल्पसे रहित होता है तिसी प्रकार प्रारब्धकर्मानुसार संकल्पविकल्प करनेवाले पुरु- षका चित्त विषयोंसे शान्त अर्थात् संसाररहित होता है ॥१॥
कधनानि व मित्राणिक मे विषयदस्यवः ।
कशास्त्रं क च विज्ञानं यदा मे गलितास्टहार
अन्वयः-यदा मे स्पृहा गलिता (तदा) मे धनानि व, मित्राणि क, विषयदस्यवः क्व, शास्त्रम् क्व, विज्ञानम् च क्व ॥ २॥
विषयवासनासे रहित पूर्णरूप जो मैं हूं तिस मेरी यदि इच्छा नष्ट हो गई तो फिर मेरे धन कहां, मित्रवर्ग कहां, विषयरूप लुटेरे कहां और शास्त्र कहां अर्थात् इनमेंसे किसी वस्तु भी मेरी आसक्ति नहीं रहतीहै॥२॥
विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनिचेश्वरे।
नैराश्येबन्धमोक्षेचन चिन्ता मुक्तये मम ॥३॥
अन्वयः-साक्षिपुरुषे परमात्मनि ईश्वरे च विज्ञाते बन्धमोक्षेच नैराश्ये ( सति ) मम मुक्तये चिन्ता न ॥ ३ ॥
देह, इंद्रिय और अंतःकरणके साक्षी सर्वशक्तिमान परमात्माका ज्ञान होनेपर पुरुषको बंध तथा मोक्षकी