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भाषाटीकासहिता। ९९

हे शिष्य ! राग और द्वेष आदि मनके धर्म हैं तेरे नहीं हैं और तेरा मनके साथ कदापि संबंध नहीं है, क्यों कि तू संकल्पविकल्परहित ज्ञानस्वरूप है, इस कारण तू रागादिविकाररहित होकर सुखपूर्वक विचर ॥५॥

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।

विज्ञायनिरहंकारोनिर्ममस्त्वं सुखीभव ॥६॥

अन्वयः-सर्वभूतेषु च आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि विज्ञाय त्वम् निरहंकारः निर्ममः ( सन् ) सुखी भव ॥ ६॥

आत्मा संपूर्ण प्राणियोंके विर्षे कारणरूपसे स्थित है, और संपूर्ण प्राणी आत्माके विषे अध्यस्त हैं इस प्रकार जानकर ममता और अहंकाररहित सुखपूर्वक स्थित हो ॥६॥

विश्व स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे।

तत्त्वमेव न सन्देहश्चिन्मूत विज्वरो भव ॥७॥

अन्वयः-यत्र इदम् विश्वम् सागरे तरङ्गा इव स्फुरति, तत् त्वम् एव ( अत्र) सन्देहः न, ( अतः ) हे चिन्मूत ! ( त्वम् ) विज्वरः भव ॥ ७॥

जिस प्रकार समुद्रके विषे जो तरंग हैं वे कल्पित और अनित्य हैं, तिसी प्रकार जिस आत्माके विषं यह विश्व कल्पित है वह तूही है, इसमें कुछ संदेह नहीं