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भाषाटीकासहिता। ११६

यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता।

अभुक्तेषु निराकांक्षी ताहशो भवदुलभः॥४॥

अन्वयः-यः तु भुक्तेषु भोगेषु अधिवासिता न भवति; (तथा) अभुक्तेषु निराकांक्षी ( भवति ) तादृशः (पुरुषः) भवदुर्लभः॥४॥

जिसकी भोगे हुए विषयोंमें आसक्ति नहीं होती है, और नहीं भोगे हुए विषयोंमें अभिलाषा नहीं होती है, ऐसा पुरुष संसारमें दुर्लभ है अर्थात् करोडोंमें एक आदमी होता है ॥४॥

बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।

भोगमोक्षनिराकांक्षीविरलोहि महाशयः॥५॥

अन्वयः-इह संसारे बुभुक्षुः मुमुक्षुः अपि दृश्यते हि भोगमोक्ष- निराकांक्षी महाशयः विरलः ॥ ५॥

इस संसारमें विषयभोगकी अभिलाषा करनेवालेभी बहुत देखनेमें आते हैं और मोक्षकी इच्छा करनेवालेभी बहुत देखनेमें आते हैं परंतु विषयभोग और मोक्ष दोनोंकी इच्छा न करनेवाला तथा पूर्णब्रह्मके विर्षे अंतःकरण लगानेवाला विरलाही होता है, सोई श्रीकृष्णभगवान्ने भगवद्वीताके विर्षे कहा है कि “यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः" ॥५॥