११६ अष्टावक्रगीता।
धर्मार्थकाममोक्षेषुजीविते मरणे तथा।
कस्याप्युदारचित्तस्यहेयोपादेयतान हि॥६॥
अन्वयः-धमार्थकाममोक्षेषु जीविते तथा मरणे कस्य अपि उदारचित्तस्य हि हेयोपादेयता न ॥ ६॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार परम फल हैं, इनके विर्षे संपूर्ण प्राणियोंका अंतःकरण बंधा है तथा संपूर्ण प्राणियोंको जन्ममरणका भय रहता है, परंतु ज्ञानी पुरुषका मन धर्मादिके विषं नहीं बंधता है और जो ज्ञानी तिन धर्मादिकको सुखरूप जानकर ग्रहण नहीं करता है और दुःखरूप जानकर त्यागता नहीं है, तथा जीवनमरणसे अपनी कुछ वृद्धि और हानि नहीं समझता है ऐसा ज्ञानी कोई विरलाही होता है ॥६॥
वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ ।
यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम् ॥७॥
अन्वयः-( यस्य ) विश्वविलये वाञ्छा न, तस्य स्थितौ च देषः न ( अस्ति ) तस्मात् धन्यः ( सः ) यथाजीविकया यथासुखम् आस्ते ॥ ७ ॥
जो ज्ञानी है, उसको इस विश्वके नाशकी इच्छा नहीं होती है तथा तिस विश्वकी स्थितिसे द्वेष नहीं होता है, क्योंकि वह ज्ञानी तो जानता है कि, सदा सर्वत्र एक