भाषाटीकासहिता। ११७
ब्रह्मही प्रकाश कर रहा है और प्रारब्धकर्मानुसार देहको धारण करता है तथा सदा सुखरूप रहता है ऐसा ज्ञानी पुरुष धन्य है ॥ ७॥
कृतार्थोऽनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधीः कृती।
पश्यन् शृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्नास्ते यथासुखम् ॥ ८॥
अन्वयः-अनेन ज्ञानेन ( अहम् ) कृतार्थः इति एवम् गलि. तधीः कृती पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अनन् यथासुखम् आस्ते ॥ ८॥
इस “ तत्वमसि " आदि महावाक्यके ज्ञानसे मैं कृतार्थ होगया हूं ऐसा निश्चय होनेसे देहादिके विषे जिसकी आत्मबुद्धि नष्ट हो गई है, ऐसा ज्ञानी देखता हुआ, श्रवण करता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ तथा भक्षण करता हुआभी सुखपूर्वकही स्थित होता है अर्थात् मैं ज्ञानसे कृतार्थ होगया ऐसी बुद्धिके कारण, बाह्य इंद्रियोंका व्यापार होनेपरभी मूर्खकी समान ज्ञानीको खेद नहीं होता है ॥८॥
शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च ।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे ॥ ९॥