॥ श्रीः ॥
अथ
अष्टावक्रगीता
सान्वय-भाषाटीकासहिता।
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो॥१॥
अन्वयः-हे प्रभो ! (पुरुषः ) ज्ञानम् कथम् अवाप्नोति । (पुंसः) मुक्तिः कथम् भविष्यति । ( पुंसः) वैराग्यम् च कथम् प्राप्तम् ( भवति ) एतत् मम ब्रूहि ॥१॥
एक समय मिथिलाधिपति राजा जनकके मनमें पूर्वपुण्यके प्रभावसे इस प्रकार जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि, इस असार संसाररूपी बंधनसे किस प्रकार मुक्ति होगी और तदनंतर उन्होंने ऐसाभी विचार किया कि, किसी ब्रह्मज्ञानी गुरुके समीप जाना चाहिये, इसी अंत- रमें उनको ब्रह्मज्ञानके मानो समुद्र परम दयालु श्रीअ- ष्टावक्रजी मिले । इन मुनिकी आकृतिको देखकर राजा जनकके मनमें यह अभिमान हुआ कि, यह ब्राह्मण अंत्यतही कुरूप है । तब दूसरेके चित्तका वृत्तांत जान- नेवाले अष्टावक्रजी राजाके मनकाभी विचार दिव्यदृष्टिके द्वारा जानकर राजा जनकसे बोले कि, हे राजन् ! देहदृ-