१२० अष्टावक्रगीता।
न निंदति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति ।
न ददाति न गृह्णाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः॥१३॥
अन्वयः-मुक्तः न निन्दति, न स्तौति, न हृष्यति, न कुप्यति, न ददाति, न च गृह्णाति, (किन्तु ) सर्वत्र नीरसः (भवति) ॥१३॥
जो जीवन्मुक्त ज्ञानी है वह किसी वस्तुकी न निंदा करता है, न प्रशंसा करता है, सुखसे प्रसन्न और दुःखसे कोपयुक्त नहीं होता है तथा किसीको न कुछ देता है, न कुछ ग्रहण करता है, क्योंकि वह जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष सर्वत्र प्रीतिरहित होता है ॥१३॥
सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वा मृत्यु वा समुपस्थितम् ।
अविह्वलमनाःस्वस्थो मुक्त एव महाशयः॥१४॥
अन्वयः-सानुरागाम् स्त्रियम् वा समुपस्थितम् मृत्युम् दृष्ट्वा अवि- हलमनाः स्वस्थः महाशयः मुक्तः एव ॥ १४ ॥
परम प्रेम करनेवाली नवयौवना स्त्रीको देखकर अथवा समीपमें आए महाविकरालमूर्ति मृत्युको देखकर जिसका मन चलायमान नहीं होता है और धैर्ययुक्त रहता है वह आत्मस्वरूपके विषं स्थित ज्ञानी मुक्तही है ॥१४॥