भाषाटीकासहिता। १२१
सुखे दुःखे नरे नायाँ सम्पत्सु च विपत्सुच।
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः॥१५॥
अन्वयः-सुखे दुःखे, नरे ना-म् सम्पत्सु, च विपत्सु च धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः विशेषः न एव ॥ १५ ॥
संपूर्ण वस्तुओंके विषं एक आत्मदृष्टि करनेवाले जिस धीर पुरुषका मन सुखके विष और स्त्रीविलासके विषं तथा संपत्तिके विषं प्रसन्न नहीं होता है और महा- दुःख तथा विपत्तिके विषे कंपायमान नहीं होता है वही मुक्त है ॥१५॥
न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता।
नाश्चर्य नैव च क्षोभः क्षीण संसरणे नरे॥१६॥
अन्वयः-क्षीणसंसरणे नरे हिंसा न, कारुण्यम् न, औद्धत्यम् न, दीनता च एव न, आश्चर्यम् न, क्षोभः च एव न ॥ १६ ॥
जिस पुरुषका संसार क्षीण हो जाता है अर्थात् देहा- भिमान दूर हो जाता है उसका जन्ममृत्युरूप बंधन दूर हो जाता है, ऐसे ज्ञानीके मनमें हिंसा कहिये परद्रोह नहीं हो जाता, दयालुता नहीं होती है, उद्धतता नहीं होती है, दीनता नहीं रहती है, आश्चर्य नहीं रहता