पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/१४

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

२ अष्टावक्रगीता।


ष्टिको छोडकर यदि आत्मदृष्टि करोगे तो यह देह टेढा है परंतु इसमें स्थित आत्मा टेढा नहीं है, जिस प्रकार नदी टेढी होती है परंतु उसका जल टेढा नहीं होता है, जिस प्रकार इक्षु (गन्ना) टेढा होता है परंतु उसका रस टेढा नहीं है। तिसी प्रकार यद्यपि पांचभौतिक यह देह टेढा है, परंतु अंतर्यामी आत्मा टेढा नहीं है। किंतु आत्मा असंग, निर्विकार, व्यापक, ज्ञानघन, सचिदानंदस्वरूप, अखंड, अच्छेद्य, अभेद्य, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्तस्वभाव है, इस कारण हे राजन् ! तुम देहदृष्टिको त्यागकर आत्मदृष्टि करो । परम दयालु अष्टावक्रजीके इस प्रकारके वचन सुननेसे राजा जनकका मोह तत्काल दूर हो गया और राजा जनकने मनमें विचार किया कि मेरे सब मनोरथ सिद्ध हो गये, में अब इनकोही गुरु करूंगा। क्योंकि यह महात्मा ब्रह्मविद्या के समुद्ररूप है, जीवन्मुक्त हैं, अब इनसे अधिक ज्ञानी मुझे कौन मिलेगा? अब तो इनसेही गुरुदीक्षा लेकर इनकोही शरण लेना योग्य है, इस प्रकार विचारकर राजा जनक अष्टावक्र- जीसे इस प्रकार बोले कि, हे महात्मन् ! मैं संसारबंधनसे छूटने के निमित्त आपकी शरण लेनेकी इच्छा करता हूं, अष्टावक्रजीनेभी राजा जनकको अधिकारी समझकर अपना शिष्य कर लिया, तब राजा जनक अपने