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१२८ अष्टावक्रगीता।

अन्वयः-निरावरणदृष्टयः व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः वीतशोकाः ( संतः ) विराजन्ते ॥ ६॥

तत्वज्ञानसे आत्मप्राप्ति होती है ऐसा जो शास्त्रका- रोंको व्यवहार है सो किस प्रकार होता है ? और यदि आत्मा नित्य प्राप्तही है तो गुरुके उपदेश और शास्त्रा- भ्यासकी क्या आवश्यकता है, तहां कहते हैं कि केवल अज्ञानरूपी मोहका परदा पड रहा है, तिससे आत्म- स्वरूपका प्रकाश नहीं होता है। इस कारण समुद्र उपदेशसे मोहको दूर करके जिससे स्वरूपका निश्चय किया है, ऐसा जो ज्ञानी है, वह जगत्में शोभायमान होता है और उसकी दृष्टिपर फिर मोहरूपी परदा नहीं पडता है॥६॥

समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तःसनातनः।

इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत् ॥७॥

अन्वयः-समस्तम् कल्पनामात्रम्, आत्मा सनातनः मुक्तः धीरः इति विज्ञाय हि बालवत् किम् अभ्यस्यति ॥ ७॥

यह संपूर्ण जगत् कल्पनामात्र है और आत्मा नित्यमुक्त है; ज्ञानी पुरुष इस प्रकार जानकर क्या बालककी समान सांसारिक व्यवहार करता है ? अर्थात् कदापि नहीं करता है ॥७॥