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भाषाटीकासहिता। १४३

विपर्यय करके मूढताको प्राप्त होता है, अथवा तत्-त्वम् पदार्थके भेदको जाननेके निमित्त संकोच कहिये चित्तकी समाधि लगाता है और कोई ज्ञानीभी बाहरकी गतिसे मूढकी समान बाहरके व्यवहारोंको करता है ॥३२॥

एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यसते भृशम् ।

धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थिताः॥३३॥

अन्वयः-मूतैः एकाग्रता वा निरोधः भृशम् अभ्यस्यते स्वपदे स्थिताः धीराः सुप्तवत् कृत्यम् न पश्यन्ति ॥ ३३ ॥

जो देहाभिमानी मूर्ख हैं वे मनको वशमें करनेके अर्थ अनेक प्रकारका अभ्यास करते हैं परंतु उनका मन वशमें नहीं होता है और जो आत्मज्ञानी धैर्यवान् पुरुष है, वह आत्मस्वरूपके विषं स्थितिको प्राप्त होता है उसका मन तो स्वभावसेही वशीभूत होता है, जिस प्रकार निद्राके समयमें मनकी चेष्टा बंद हो जाती है, तिसी प्रकार ज्ञान होनेपर मनकी चेष्टा बन्द हो जाती है, क्योंकि अद्वैतात्मस्वरूपके ज्ञानसे भ्रममात्रकी निवृत्ति हो जाती है ॥३३॥

अप्रयत्नात्प्रयत्नाद्रा मूढा नाप्नोति नितिम् ।

तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः३४॥ ।