१४८ अष्टावक्रगीता।
अन्वयः-यः वै निर्बन्धम् करोति, ( तस्य ) विमूढस्य निगेधः क; स्वारामस्य धीरस्य एव असो सर्वदा अकृत्रिमः (भवति) ॥४१॥
जो मूढ देहाभिमानी पुरुष शुष्कचित्तनिरोधके विर्षे दुराग्रह करता है, तिस मूढके चित्तका निरोध किस प्रकार हो सकता है ? अर्थात् उसके चित्तका निरोध कदापि नहीं हो सकता है, क्योंकि समाधिके अनंतर अज्ञानीका चित्त फिर संकल्पविकल्पयुक्त हो जाता है और आत्मा- राम धीर पुरुषके चित्तका निरोध स्वाभाविकही होता है। क्योंकि उसका चित्त संकल्पादिरहित निश्चल और ब्रह्मा- कार होता है ॥४१॥
भावस्य भावकः कश्चिन्न किञ्चिद्भावकोऽपरः।
उभयाभावकःकश्चिदेवमेव निराकुलः॥४२॥
अन्वयः-कश्चित् भावस्य भावकः अपरः न किञ्चित् भावक: एवम् कश्चित् उभयाभावकः एव नि कुलः आस्ते ॥ ४२ ॥
कोई नैयायिक आदि ऐसा मानते हैं कि, यह जगत् वास्तवमें सत्य है और कोई शून्यवादी ऐसा मानते हैं कि, कुछभी नहीं है और हजारोंमें एक आदमीआत्माका अनुभव करनेवालाअभाव और भाव दोनोंको न मानकर स्वस्थचित्तवाला रहता है ॥ ४२ ॥