पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/१६८

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अष्टावक्रगीता। नाश होनेपरभी जो वर्तमान रहते हैं और जो निराकार कहिये घटादिकेसे आकारसे रहित हैं और जो सर्वत्र आत्मदृष्टि करनेवाले तथा संकल्पविकल्परूपी रोगसे रहित हैं वे कदापि कर्तव्यताको नहीं देखते हैं अर्थात् किसी कार्यके करनेका संकल्प नहीं करते हैं ॥१७॥ अकुर्वन्नपि संक्षोभाव्यग्रःसर्वत्र मूढ- धीः। कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः॥२८॥ अन्वयः-मूढधीः अकुर्वन् अपि सर्वत्र संक्षोभात् व्यग्रः ( भवति); हि कुशलः तु कृत्यानि कुर्वन् अपि निराकुल: ( भवति ) ॥५८॥ । अज्ञानी पुरुष कर्मोको न करता हुआभी सर्वत्र संक- ल्पविकल्प करनेके कारण व्यग्र रहता है, और ज्ञानी कार्याको करता हुआभी निर्विकारचित्त रहता है क्योंकि वह तो आत्मसुखके विषं विराजमान होता है ॥२८॥ सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च । सुखं वक्ति सुखं ते व्यव- हारेऽपि शान्तधीः॥५९ ॥ अन्वयः-शान्तधीः व्यवहारे अपि सुखम् आस्ते; सुखम् शेते; सुखम् आयाति; ( सुखम् ) च याति; सुखम् वक्ति, सुखम् मुंक्ते ॥ ५९॥