पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/१६९

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भाषाटीकासहिता। १५७ प्रारब्धके अनुसार व्यवहारके विर्षे वर्तमानभी आत्म- निष्ठा बुद्धिवाला ज्ञानी सुखपूर्वक बैठता है, सुखपूर्वक शयन करता है, सुखपूर्वक आता है, सुखपूर्वक जाता है, सुखपूर्वक कहता है तथा सुखपूर्वकही भोजन करता है अर्थात् संपूर्ण इंद्रियों के व्यापारको करता है परंतु आसक्त नहीं होता है क्योंकि उसका चित्त तो ब्रह्माकार होता है ॥२९॥ स्वभावाद्यस्य नैवार्तिलाकवद्याहा- रिणः । महातूद इवाक्षोभ्यो गत- केशःस शोभते ॥६॥ ... अन्वयः-व्यवहारिणः यस्य स्वभावात् लोकवत् आतिः नैव ( भवति किन्तु ) सः महादः इव अक्षोभ्यः गतक्लेशः शोभते ॥ ६०॥ व्यवहार करते हुएभी ज्ञानीको स्वभावसेही संसारी पुरुषकी समान खेद नहीं हाता है किंतु वह ज्ञानी बड़े जलके सरावरकी समान चलायमान नहीं होता है और निर्विकार स्वरूपमें शोभायमान होता है ॥६॥ निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते । प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफल- भागिनी॥६॥