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भाषाटीकासहिता। १६९ अन्वयः-मूहस्य दृष्टिः सर्वदा भावनाभावनासक्ता (भवति) स्वस्थस्य तु सा भाव्यभावनया अदृष्टरूपिणी ( भवति ) ॥ ६३ ॥ ____ मूर्ख देहाभिमानी पुरुषकी दृष्टि सर्वदा संकल्प और विकल्पके विषे आसक्त होती है और आत्मस्वरूपके विर्षे स्थित ज्ञानीकी दृष्टि यद्यपि संकल्पविकल्पयुक्तसी दीखती है परंतु तथापि संकल्पविकल्पके लेपसे शुद्ध रहती है, क्योंकि ज्ञनीको 'अहं करोमि ऐसा अभिमान नहीं होता है ॥ ६३॥ सर्वारम्भेषु निष्कामो यश्चरेद्वालव- न्मुनिः। न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रिय- माणेऽपि कर्मणि॥६४॥ अन्वयः-यः मुनिः बालवत् सर्वारम्भेषु निष्कामः चरेत् तस्य शुद्धस्य कर्मणि क्रियमाणे अपि लेपः न ( भवति ) ॥ ६४ ॥ तहाँ वादी शंका करता है कि, यदि ज्ञानी संकल्प- विकल्प करके क्रिया करता है तो उसकी द्वैतबुद्धि क्यों नहीं होती है ? तिसका समाधान करते हैं कि- जो ज्ञानी पुरुष बालककी समान निष्काम होकर प्रारब्धानुसार प्राप्त हुए कर्मोके विषं प्रवृत्त होता है उस निरंहकार ज्ञानीको कर्म करनेपरभी कर्तृत्वका दोष नहीं लगता है क्योंके उसको तो कर्तापनेका अभिमानही नहीं होता है ॥ ६४॥