पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/१७३

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भाषाटीकासहिता। १६१ स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसवि- ग्रहः। अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधि- यस्य वर्तते ॥६॥ अन्वयः-पूर्णस्वरमविग्रहः सः अर्थसंन्यासी जयति यस्य अन- बच्छिन्न अकृत्रिमः समाधिः वर्तते ॥ ६७ ॥ पूर्ण स्वभाववाला है स्वरूप जिसका ऐसे अर्थ कहिये दृष्ट और अदृष्ट फलको त्यागनेवालेकी जय ( सर्वोपरि उन्नति ) होती है, जिसका पूर्णस्वरूप आत्मा- के विर्षे स्वाभाविक समाधि होता है ॥ ६॥ बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाश- यः । भेगमोक्षनिराकांक्षी सदा सा- त्रनीरसः॥६८॥ अन्वयः-अत्र बना उक्तत किम् ? ( यतः ) ज्ञानतत्त्व: महाशयः भोगमे क्षानराकांक्ष सदा सत्र नीरमः ( भवति ॥६८॥ ज्ञानी पुरुपके अनेक प्रकारके लक्षण हैं उनका पूर्ण- रीतिसे तो वर्णन करना कठिन है परन्तु ज्ञानी पुरुषका एक साधारण लक्षण यह है कि यहां ज्ञानीक बहुत लक्षण कहनेसे कुछ प्रयोजन नहीं है. कंबल साधा- रण लक्षण यह है कि, ज्ञानी आत्मतत्वका जानने- वाला, आत्मस्वरूपके वि मन, भोग और मोक्षकी