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भाषाटीकासहिता। ७

फिर शंका करता है कि, हे गुरो ! मैं गौरवर्ण हूं, स्थूल हूं कृष्णवर्ण हूं, रूपवान हूं, पुष्ट हूं, कुरूप हूं, काणा हूं नीच हूं, इस प्रकारकी प्रतीति इस पांचभौतिक शरीरमें अनादि कालसे सबही पुरुषोंको हो जाती है, फिर तुमने जो कहा कि, तू देह नहीं है सो इसमें क्या युक्ति है ? तब अष्टावक्र बोले कि, हे शिष्य ! अविवेकी पुरुषको इस प्रकार प्रतीति होती है, विवेकदृष्टिसे तू देह इंद्र- यादिका द्रष्टा और देह इंद्रियादिसे पृथक है। जिस प्रकार घटको देखनेवाला पुरुष घटसे पृथक होता है, उसी प्रकार आत्माकोभी सर्व दोषरहित और सबका साक्षी जान | इस विषयमें न्यायशास्त्रवालोंकी शंका है, कि, साक्षिपना तो बुद्धिमें रहता है, इस कारण बुद्धिही आत्मा हो जायगी, इसका समाधान यह है कि, बुद्धि तो जड है और आत्मा चेतन माना है, इस कारण जड जो बुद्धि सो आत्मा नहीं हो सकता है, तो आत्माको चैतन्यस्वरूप जान तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! चैतन्यरूप आत्माके जाननेसे क्या फल होता है सो कहिये ? तिसके उत्तरमें अष्टावक्रजी कहते हैं कि, साक्षी और चैतन्य जो आत्मा तिसको जाननेसे पुरुष जीवन्मुक्तपदको प्राप्त होता है, यही आत्मज्ञानका फल है, मुक्तिका स्वरूप किसीके विचारमें नहीं आया है,