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भाषाटीकासहिता। ९

न त्वं विप्रादिको वर्णों नाश्रमी नाक्षगोचरः।

असंगोसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ५

अन्वयः-त्वम् विप्रादिकः वर्णः न आश्रमी न अक्षगोचरः न (किन्तु, त्वम् ) असंगः निराकारः विश्वसाक्षी असि ( अतः कर्मासक्तिम् विहाय चिति विश्राम्य ) सुखी भव ॥५॥

शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! मैं तो वर्णाश्र-- मके धर्ममें हूं इस कारण मुझे वर्णाश्रम कर्मका करना योग्य है, अर्थात् वर्णाश्रमके कर्म करनेसे आत्माके विषयमें विश्राम करके मुक्ति किस प्रकार होगी ? तब तिसका गुरु समाधान करते हैं कि, तू ब्राह्मण आदि नहीं है, तूब्रह्मचारी आदि किसी आश्रममें नहीं है। तहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि, मैं ब्राह्मण हूं, मैं संन्यासी हूं इत्यादि प्रत्यक्ष है, इस कारण आत्माही वर्णश्रमी है। तहां गुरु समाधान करते हैं कि, आत्माका इंद्रिय तथा अंतःकरण करके प्रत्यक्ष नहीं होता है और जिसका प्रत्यक्ष होता है वह देह है, तहां शिष्य फिर प्रश्न करता है कि, मैं क्या वस्तु हूं ? तहां गुरुसमाधान करते हैं कि, तू असंग अर्थात् देहादिक उपाधि यथा आकाररहित विश्वका साक्षी आत्मस्वरूप है, अर्थात् तुझमें वर्णाश्र- मपना नहीं है, इस कारण कर्मों के विषयमें आसक्ति न करके चैतन्यरूप आत्माके विषयमें विश्राम करके परमानंदको प्राप्त हो ॥५॥