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१० अष्टावक्रगीता।

धर्माधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।

न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा ६

अन्वयः-हे विभो ! धर्माधर्मौ सुखम् दुःखम् मानसानि ते न (त्वम् ) कर्ता न असि भोक्ता न असि (किन्तु ) सर्वदा मुक्त एव असि ॥ ६ ॥

तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, वेदोक्त वर्णाश्रमके कर्मोंको त्यागकर आत्माके विषं विश्राम करनेमेंभी तो अधर्मरूप प्रत्यवाय होता है, तिसका गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! धर्म, अधर्म, सुख और दुःख यह तो मनका संकल्प है. तिस कारण तिन धर्माध- मादिके साथ तेरा त्रिकालमेंभी संबंध नहीं है। तू कर्ता नहीं है, तू भोक्ता नहीं है, क्योंकि विहित अथवा निषिद्ध कर्म करता है वही सुख दुःखका भोक्ता है । सो तुझमें नहीं है क्योंकि तूं तो शुद्धस्वरूप है, और सर्वदा कालमुक्त है । अज्ञान करके भासनेवाले सुख दुःख आत्माके विर्षे आश्रय करकेही निवृत्त हो जाते हैं ॥६॥

एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।

अयमेव हिते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥७॥

अन्वयः-( हे शिष्य ! त्वम् ) सर्वस्य द्रष्टा एकः असि सर्वदा मुक्तप्रायः असि हि ते अयम् एव बन्धः (यम् ) द्रष्टारम् इतरम् पश्यसि ॥७॥