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भाषाटीकासहिता। ११

तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, शुद्ध, एक, नित्य मुक्त ऐसा जो आत्मा है तिसका बंधन किस निमित्तसे होता है कि, जिस बंधनके छुटानके अर्थ बडे २ योगी पुरुष यत्न करते हैं ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! तू अद्वितीय सर्वसाक्षी सर्वदा मुक्त है, तू जो द्रष्टाको द्रष्टा न जानकर अन्य जानता है यही बंधन है । सर्व प्राणियोंमें विद्यमान आत्मा एकही है और अभि- मानी जीवके जन्मजन्मांतर ग्रहण करनेपरभी आत्मा सर्वदा मुक्त है । तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, फिर संसारबंध क्या वस्तु है ? तिसका गुरु समाधान करते हैं कि, यह प्रत्यक्ष देहाभिमानही संसारबंधन है अर्थात् यह कार्य करता हूं, यह भोग करता हूं इत्यादि ज्ञानही संसारबंधन है, वास्तवमें आत्मा निर्लेप है, तथापि देह और मनके भोगको आत्माका भोग मानकर बद्धसा हो जाता है ॥७॥

अहं कतैत्यहमानमहाकृष्णाहिदंशितः।

नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव८॥

अन्वयः-(हे शिष्य ! ) अहम् कर्ता इति अहंमानमहाकृष्णा- हिंदंशितः ( त्वम् ) अहं कर्ता न इति विश्वासामृतम् पीत्वा सुखी भव ॥८॥