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१८ अष्टावक्रगीता।

निःसंगो निष्क्रियोऽसि तं स्वप्रकाशो निरंजनः ।

अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठसि ॥१५॥

अन्वयः-(हे शिष्य ! ) त्वम् ( वस्तुतः ) स्वप्रकाशः निरं- जनः निःसंगः निष्क्रियः असि (तथापि ) हि ते बन्धः अयम् एव ( यत् ) समाधिम् अनुतिष्ठसि ॥ १५ ॥

केवल चित्तकी वृत्तिका निरोधरूप समाधिही बंध- नकी निवृत्तिका हेतु है इस पातंजलमतका खंडन करते हैं कि, पातंजलयोगशास्त्र में वर्णन किया है कि, जिसके अंतःकरणकी वृत्ति विरामको प्राप्त हो जाती है उसका मोक्ष होता है सो यह बात कल्पनामात्रही है अर्थात् तू अंतःकरणकी वृत्तिको जीतकर सविकल्पक हठस- माधि मत कर क्योंकि तू निःसंग क्रियारहित स्वप्रकाश और निर्मल है इस कारण सविकल्प हठसमाधिका अनुष्ठानभी तेरा बंधन है, आत्मा सदा शुद्ध मुक्त है तिस कारण भ्रांतियुक्त जीवके चित्तको स्थिर करनेके निमित्त समाधिका अनुष्ठान करनेसे आत्माकी हानि वृद्धि कुछ नहीं होती है जिसको सिद्धि लाभ अर्थात् आत्मज्ञान हो जाता है उसको अन्य समाधिक अनुष्ठा- नसे क्या प्रयोजन है ? इस कारणही राजा जनकके प्रति अष्टावक वर्णन करते हैं कि, तू जो समाधिका अनुष्ठान