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भाषाटीकासहिता। १९

करता है यही तेरा बंधन है, परंतु आत्मज्ञानविहीन पुरुषको ज्ञानप्राप्तिके निमित्त समाधिका अनुष्ठान करना आवश्यक है ॥ १५॥

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः ।

शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मा गमःक्षुद्रचित्तताम्॥१६॥

अन्वयः-(हे शिष्य ! ) इदम् विश्वम् त्वया व्याप्तम् त्वयि प्रोतम् यथार्थतः शुद्धबुद्ध स्वरूपः त्वम् क्षुद्रचित्तताम् मा गमः ॥१६॥

अब शिष्यकी विपरीत बुद्धिको निवारण करनेके निमित्त गुरु उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस प्रकार सुवर्णके कटक कुंडल आदि सुवर्णसे व्याप्त होते हैं इसी प्रकार यह दृश्यमान संसार तुझसे व्याप्त है और जिस प्रकार मृत्तिकाके विषयमें घट शराव आदि किया हुआ होता है तिसी प्रकार यह संपूर्ण संसार तेरे विषयमें प्रोत है, हे शिष्य ! यथार्थ विचार करके तू सर्व प्रपंचरहित है तथा शुद्ध बुद्ध चिद्रूप है, तू चित्तकी वृत्तिको विपरीत मत कर ॥१६॥

निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।

अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः १७

अन्वयः-(हे शिष्य ! त्वम् ) निरपेक्षः निर्विकारः निर्भरः शीतलाशयः अगाधबुद्धिः अक्षुब्धः चिन्मात्रवासनो भव ॥ १७॥