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भाषाटीकासहिता। ३३

पात्रोंमें भरे हुए जलके विषे शीत, उष्ण सुगंध, दुर्गंध, शुद्ध, अशुद्ध इत्यादि अनेक उपाधियां रहती है और उन अनेकों पात्रोंमें भिन्न सूर्यके प्रतिबिंब पडते हैं, तथापि वह सूर्य एकही होता है और जलकी शीत उष्णादि उपाधियोंसे रहित होता है इसी प्रकार में संपूर्ण विश्वमें व्याप रहा हूं, तथापि जगत्की संपूर्ण उपाधियोंसे रहित हूंअर्थात् न कोई जाता है न कोई आता है और जाता है आता है इस प्रकारकी जो प्रतीति है सो अज्ञानवश है, वास्तवमें नहीं है ॥ १२॥

अहोअहंनमोमह्यं दक्षोनास्तीहमत्समः॥

असंस्टश्यशरीरेणयेनविश्वचिरंधृतम्॥१३॥

अन्वयः-अहम् अहो ( तस्म ) मह्यम् नमः इह मत्तमः (कः अपि ) दक्षः न अस्ति येन शरीरेण असंस्पृश्य (मया) चिरम् विश्वम् धृतम् ॥ १३ ॥

शिष्य शंका करता है कि, जिस आत्माका देहसे संग है, वह असंग किस प्रकार हो सकता है, तिसका गुरु समाधान करते हैं कि, मैं आश्चर्यरूप हूं इस कारण मेरे अर्थ नमस्कार है, क्योंकि इस जगत्में मेरी समान कोई चतुर नहीं है, अर्थात् अघट घटना करने में मैं चतुर हूं, क्योंकि में शरीरमें रहकरभी शरीरसे स्पर्श नहीं करता हूं और शरीरकार्य करता हूं जिस प्रकार आम धृतके