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३४ अष्टावक्रगीता।

पिंडमें लीन न होकरभी घृतपिंडको गलाकर रसरूप कर देता है, उसी प्रकार संपूर्ण जगत्में मैं लीन नहीं होता हूं और संपूर्ण जगत्को चिरकाल धारण करता हूं ॥१३॥

अहोअनमोमायस्यमेनास्तिकिञ्चन॥

अथवायस्यमसवैयद्राङ्मनसगोचरम् १४

- अन्वयः-अहो अहम् यस्य मे (परमार्थतः ) किञ्चन न अस्ति अथवा यत् वाङ्मनसगोचरम् ( तत् ) सर्वम् यस्य मे ( सम्बधेि अस्ति अतः ) मह्यं नमः ॥ १४॥

शिष्य आशंका करता है कि, हे गुरो! संबंधक विना जगत् किस प्रकार धारण होता है ? भीत गृहकी छत आदिको धारण करती है परंतु काष्ठ आदिसे उसका संबंध होता है, सो आत्मा विना संबंधके जगत्को किस प्रकार धारण करता है इसका गुरु समाधान करते हैं कि, अहो मैं बडा आश्चर्यरूप हूं इस कारण अपने स्वरूपको नमस्कार करूं हूं, आश्चर्यरूपता दिखाते हैं कि, परमार्थदृष्टिसे तो मेरा किसीसे संबंध नहीं है, और विचारदृष्टि से देखो तो मुझसे भिन्नभी कोई नहीं है और यदि सांसारिकदृष्टि से देखो तो जो कुछ मन वाणीसे विचारा जाता है वह सब मेरा संबंधी है परंतु वह मिथ्या संबंध है, जिस प्रकार सुवर्ण तथा कुंडलका संबंध है,