४२ अष्टावक्रगीता।
जब पुरुषको सबके अधिष्ठानरूप आत्मस्वरूपका ज्ञान होता है, तब कहता है कि, अहो ! बडे आश्चर्यकी वार्ता है कि, मैं चैतन्यसमुद्रस्वरूप हूं और मेरे विर्षे चित्तरूपी वायुके योगसे नानाप्रकारके ब्रह्मांडरूपी तरंग उत्पन्न होते हैं अर्थात् जिस प्रकार जलसे तरंग भिन्न नहीं होते हैं, तिसी प्रकार ब्रह्मांड मुझसे भिन्न नहीं है ॥२३॥
मय्यनंतमहाम्भोधी चित्तवातेप्रशाम्यति ।
अभाग्याज्जीववणिजोजगत्पोतोषिनश्वरः २४
अन्वयः-अनन्तमहाम्भोधौ मषि चित्तवाते प्रशाम्यति (सति) जीववणिजः अभाग्यात् जगत्पोतः विनश्वरः ( भवति ) ॥ २४ ॥
अब प्रारब्ध कर्मोंके नाशकी अवस्था दिखाते हैं कि मैं सर्वव्यापक चैतन्यस्वरूप समुद्र हूं, तिस मेरे विषे चित्तवायुके अर्थात् संकल्पविकल्पात्मक मनरूप वायुके शांत होनेपर अर्थात् संकल्पादिरहित होनेपर जीवात्मा- रूप व्यापारीके अभाग्य कहिये प्रारब्धके नाशरूप विपरीत पवनसे जगत् समुद्रके विषं लगा हुआ शरीर आदिरूप नौकाका समूह विनाशवान होता है ॥२४॥
मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्यजीववीचयः।
उद्यन्तिघ्नन्तिखेलन्तिप्रविशन्तिस्वभावतः२५
अन्वयः-आश्चर्यम् ( यत् ) अनन्तमहाम्भोधौ मयि जीव- बीचयः स्वभावतः उद्यन्ति प्रन्ति खलन्ति प्रविशन्ति ॥ २५ ॥