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४८ अष्टावक्रगीता ।

इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः ।

आश्चर्यमोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका८॥

अन्वयः-इह अनुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः मोक्षका- मस्य मोक्षात् एव विभीषिका ( भवति इति ) आश्चर्यम् ॥ ८॥

अब इस वार्ताका वर्णन करते हैं कि, ज्ञानी पुरुषको विषयोंका वियोग होनेपर शोक नहीं करना चाहिये, जिसको इस लोक और परलोकके सुखसे वैराग्य हो गया है और आत्मा नित्य है तथा जगत् अनित्य है, इस प्रकार जिसको ज्ञान हुआ है, और मोक्ष जो सच्चि- दानंदकी प्राप्ति तिसके विषं जिसकी अत्यंत अभिलाषा है, वह पुरुषभी बलवान् देह आदि असत् स्त्रीपुत्रादिके वियोगसे भयभीत होता है, यह बडेही आश्चर्यकी वार्ता है, स्वनमें अनेक प्रकारके सुख देखनेपरभी जाग्रत् अव- स्थामें वह सुख नहीं रहते हैं तो उन सुखोंका कोई पुरुष शोक नहीं करता है तिसी प्रकार स्त्री पुत्र धन आदि असत् वस्तुका वियोग होनेपर शोक करना योग्य नहीं है ॥८॥

धीरस्तुज्यमानोऽपिपीड्यमानोऽपिसर्वदा।

अत्मानंकवलंपश्यन्नतुष्यतिनकु.प्यति ॥९॥

अन्वय -धीरः तु ( लोकै विषयान ) भेज्यमानः अपि (निन्दादिना ) पीडयमानः अपि केवलम् आत्मानम् पश्यन् न. दुष्यात न वु.प्यति ॥९॥