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भाषाटीकासहिता। ४९

अब इस वार्ताका वर्णन करते हैं कि, ज्ञानीको शोक हर्ष नहीं करने चाहिये, ज्ञानी पुरुषोंको जगत्के विषे पुण्यवान् पुरुष नाना प्रकारके भोग कराते हैं, परंतु वह ज्ञानी पुरुष तिससे हर्षको नहीं प्राप्त होता है और पापी पुरुष पीडा देते हैं तो उससे शोक नहीं करता है क्योंकि वह ज्ञानी पुरुष जानता है कि, आत्मा सुखदुःखरहित है अर्थात् आत्माको कदापि हर्ष शोक नहीं हो सकता है॥९॥

चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीवत् ।

संस्तवेचापिनिन्दायांकथंधुभ्येन्महाशयः१०

अन्वयः-(यः) चेष्टमानम् स्वम् शरीरम् अन्यशरीरवत् पश्यति (सः) महाशयः संस्तवे अपि च निन्दायाम् कथम् क्षुभ्येत् ॥१०॥

हर्ष शाकके हेतु जो स्तुति निंदा आदि सो तो शरी- रके धर्म हैं और शरीर आत्मासे भिन्न है फिर ज्ञानीको हर्षशोक किस प्रकार हो सकते हैं इस वार्ताका वर्णन करते हैं, जो ज्ञानी पुरुष चेष्टा करनेवाले अपने शरीरको अन्य पुरुषके शरीरकी समान आत्मासे भिन्न देखता है, वह महाशय स्तुति और निंदाके विषे किस प्रकार हर्ष- शोकरूप क्षोभको प्राप्त होयगा ? अर्थात् नहीं प्राप्त होयगा ॥१०॥