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५० अष्टावक्रगीता।

मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन्विगतकौतुकः।

अपिसन्निहितेमृत्यौकथंत्रस्यतिधीरधीः११॥

अन्वयः-इदम् विश्वम् मायामात्रम् ( इति ) पश्यन् विगत- कौतुकः धीरधीः मृत्यौ सन्निहिते अपि कथम् त्रस्यति ॥ ११ ॥

जिसका मरण होता है और जो बंधकरता है ये दोनों अनित्य हैं इस प्रकार जाननेके कारण ज्ञानीको मृत्यु- कालके समीप होनेपरभी भय किस प्रकार हो सकता है इस वार्ताका वर्णन करते हैं, यह दृश्यमान विश्व माया- मात्र कहिये मिथ्यारूप है इस प्रकार देखता हुआ, इस कारणही यह शरीर आदि विश्व कहांसे उत्पन्न हुआ है और कहां लीन होयगा इस प्रकार विचार नहीं करने- वाला ज्ञानी पुरुष मृत्युके समीप आनेपरभी भयभीत नहीं होता है ॥११॥

निस्टहंमानसंयस्यनैराश्येऽपिमहात्मनः।

तस्यात्मज्ञानतृप्तस्यतुलनाकेनजायते॥१२॥

अन्वयः-नैराश्ये अपि यस्य मानसम् निःस्पृहम् (भवति तस्य ) आत्मज्ञानतृप्तस्य महात्मन: केन (समम् ) तुलना जायते ? ॥ १२ ॥

अब ज्ञानीका सर्वकी अपेक्षा उत्कृष्टपना दिखाते हैं कि, मैं ब्रह्मरूप हूं इस प्रकार ज्ञान होनेपर जिसके संपूर्ण मनोरथ पूर्ण हो गये हैं ऐसा जो महात्मा ज्ञानी पुरुष