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भाषाटीकासहिता। ५५

संबंध नहीं होता है, जिस प्रकार धूम आकाशमें जाता है, परंतु उस धूमका आकाशसे संबंध नहीं होता है, गीताके विषे कहा है कि, "ज्ञानाग्निःसंर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा " अर्थात् ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोको भस्म कर देता है ॥३॥

आत्मैवेदं जगत्सर्व ज्ञातं येन महात्मना।

यदृच्छयावर्त्तमानंतंनिषेधुंक्षमेतकः॥४॥

अन्वयः-येन महात्मना इदम् सर्वम् जगत् आत्मा एव (इति) ज्ञातम् तम् यदृच्छया वर्तमानम् कः निषेद्धम् क्षमेत ॥ ४॥

तहां शंका होती है कि, ज्ञानी कर्म करता है और उसको पाप पुण्यका स्पर्श नहीं होता है, यह कैसे हो सकता है तिसका समाधान करते हैं कि, जिस ज्ञानी महात्माने “यह दृश्यमान संपूर्ण जगत् आत्मांही है। इस प्रकार जान लिया और तदनंतर प्रारब्धके वशीभूत होकर वर्तता है, उस ज्ञानीको कोई रोक नहीं सकता है अर्थात् वेदवचनभी ज्ञानीको न रोक सकता है न, प्रवृत्त कर सकता है. क्योंकि "प्रबोधनीय एवासो सुप्तो राजे बंदिभिः ” अर्थात् जिस प्रकार बंदी (भाट) राजाके चरित्रोंका वर्णन करते हैं तिसी प्रकार वेदभी आत्म- ज्ञानीका बखान करते हैं ॥४॥