पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/७२

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

६० अष्टावक्रगीता।

अथ षष्ठं प्रकरणम् ६.

आकाशवदनन्तोऽहं घटवत्प्राकृतं जगत् ।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।

जंअन्वयः-अहम् आकाशवत् अनन्तः, प्राकृतम् जगत् घटवत् इति ज्ञानम् ( अनुभवसिद्धम् ), तथा एतस्य त्यागः न, ग्रहः न, लयः (न ) ॥ १॥

इस प्रकार पंचम प्रकरणमें गुरुने लयमार्गका उपदेश किया, अब शिष्य प्रश्न करता है कि, अत्माजो अनंत- रूप है उसका देहादिके विषं निवास करना किस प्रकार घटेगा ? तिसका गुरु समाधान करते हैं कि, आत्मा आकाशकी समान अनंतरूप है और प्रकृतिका कार्य जगत् घटकी समान आत्माका अवच्छेदक और निवास- स्थान है अर्थात् जिस प्रकार आकाश घटादिमें व्याप्त होता है तिसी प्रकार आत्मा देहके विर्षे व्याप्त है, इस प्रकारका जो ज्ञान है, सो वेदांतसिद्ध और अनुभवसिद्ध है, इसमें कुछ सन्देह नहीं है तिस कारण उस आत्माका त्याग नहीं है और ग्रहण नहीं है, तथा लय नहीं है।॥१॥

महोदधिरिवाहं स प्रपञ्चो वीचिसनिमः ।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।