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66 अष्टावक्रगीता।

अथाष्टमं प्रकरणम् ८.

व तदाबन्धो यदा चित्तं किञ्चिद्वाञ्छति शोचति ।

किञ्चिन्मुञ्चति गृह्णाति कि-काश्चिद्धृष्यतिकुप्यति ॥ १॥

अन्वयः-यदा चित्तम् किञ्चित् वाञ्छति शोचति किञ्चित् मुञ्चति गृह्णाति किञ्चित् हृष्यति कुप्यति तदा बन्धः भवति ॥ १॥

इस प्रकार छः प्रकरणोंकरके अपने शिष्यकी सर्वथा परीक्षा लेकर, बंधमोक्षकी व्यवस्था वर्णन करनेके मिषसे गुरु अपने शिष्यके अनुभवकी चार श्लोकोंसे प्रशंसा करते हैं कि, हे शिष्य ! तेंने जो कहा कि, मेरेको (आत्माको) कुछ त्याग करना और ग्रहण करना नहीं है सो सत्य है, क्योंकि, जब चित्त किसी वस्तुकी इच्छा करता है, किसी वस्तुका शोक करता है, किसी वस्तुका त्याग करता है, किसी वस्तुका ग्रहण करता है, किसी वस्तुसे प्रसन्न होता है, अथवा कोप करता है तबही जीवका बंध होता है॥१॥

तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वाञ्छति न शोचति।

नमुञ्चतिन गृह्णाति नहष्यति नकुप्यति॥२॥

अन्वयः-यदा चित्तम न वाञ्छति न शोचति न मुञ्चति न हाति न एज्यति न कुष्यति ॥ २॥